यह पीर पुरानी हो !
मत रहो हाय, मैं, जग में मेरी एक कहानी हो ।
मैं चलता चलूँ निरन्तर अन्तर में विश्वास भरे,
इन सूखी-सूखी आँखों में, तेरी ही प्यास भरे,
मत पहुँचु तुझ तक, पथ में मेरी चरण-निशानी हो ।
दूँ लगा आग अपने हाँथों, मिट्टी का गेह जले,
पल भर प्रदीप में तेरे मेरा भी तो स्नेह जले,
जल जाये मेरा सत्य, अमर मेरी नादानी हो ।
वह काम करूँ ही नहीं, न हो जिससे तेरी अर्चा,
वह बात सुनूँ ही नहीं, न हो जिसमें तेरी चर्चा,
जग उँगली उठा कहे : कोई ऐसा अभिमानी हो ।
('तीर-तरंग)