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प्रेम के निशान / आलोक श्रीवास्तव-२

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यहीं कहीं हमारे प्रेम के निशान छूटे हैं
यहीं कहीं दो डरी आंखें
यहॊं कहीं लड़खड़ाती जुबान
यहीं कहीं थकान पांवों की

देखो खड़ा है यह दरख़्त अब भी
अब भी साबुत है वह घर
जस-का-तस
सिर्फ पलस्तर झरा है दीवारों से

सामने गुज़रती सड़क पर वैसे ही उड़ती है धूल .

यहीं कहीं पड़ा है उस स्त्री का हारा थका जीवन
जो उन दिनों वसंत का गीत होती थी
उसके पांवों के स्पर्श से धरती पर कोंपल फूटती थी
उसकी आंखों में किसी विशाल स्वप्न-रात्रि का
अकेला चांद टहलता था

यही है वह लड़की दो बच्चों की अंगुलियां थामे
बहुत सुबह शुरु होता है उसका जीवन
और देर रात तक खटने के बाद
याद नहीं रहती उसे अपनी थकान भी
इस बीच चुपके से रात की झील में
गिर जाते हैं तमाम तारे

वह सूनी सड़क
बारिश की पहली झड़ी
और भीतर उगा एक बहुत कोमल अंकुर
आते वसंत की हवायें
कोयल की पहली पुकार
आज किस रूप में सुरक्षित हैं ?

इस दुखांत प्रेम-कथा के नाट्य-स्थल पर
प्रतीत होते हैं, पर हैं नहीं -
प्रेम के निशान,
गुजरे मौसम की छापें...

जब वसंत का पहला फूल खिलता है
तब याद आती है वह स्त्री ..
थकी, उदास, मलिन मन
जो वसंत का गीत होती थी
जिसके पांव के स्पर्श से धरती पर
फूट पड़ती थीं कोपलें
जिसकी आंखों में
किसी विशाल स्वप्न-रात्रि का
अकेला चांद टहलता था ....