भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उपसंहार / ब्रज श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:09, 23 मार्च 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ब्रज श्रीवास्तव |संग्रह= }} <Poem> ओले गिरने के बाद क...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ओले गिरने के बाद की शाम है ये
इसमें बहुत अप्रिय-सी ठंडक है

अभी तक विदा नहीं हुई वह दुर्गन्ध
जो दोपहर में फैल गई थी
जो फ़सलों को कुचल रही थी
अपने वज़नदार पैरों से

बरसात बन्द नहीं हुई पूरी तरह
जो बदलती जा रही है
किसानों की आँखों की टपटप में

एकदम आ गया अंत
इतने दिनों से बढ़ रही उम्मीद का
समय से जुड़े कुछ अवसाद के मुहावरे
टहलने लग गए

दूधवाले का रुंआसा चेहरा
आज के दिन का उपसंहार हुआ