भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैंने बहुत देखे / ज़ाक प्रेवेर

Kavita Kosh से
हेमंत जोशी (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:18, 6 अप्रैल 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज़ाक प्रेवेर }} <poem> मैंने उसे देखा जो दूसरों की ट...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


मैंने उसे देखा जो दूसरों की टोपी पर बैठा था
पीला पड़ा था वह
काँप रहा था
किसी चीज़ के...किसी भी चीज़ के...इंतज़ार में था वह
युद्ध-दुनिया का अंत-
तकरीबन असंभव था उसके लिए बोल पाना
या इशारा कर पाना
और दूसरा जो खोज रहा था अपनी टोपी
वह और भी ज़्यादा पीला था
वह भी काँप रहा था
दोहराता था निरंतर
मेरी टोपी-मेरी टोपी
वह रोना चाहता था-
मैंने उसे भी देखा जो पढ़ रहा था अखबार
मैंने उसे भी देखा जो सलामी दे रहा था झंडे को
मैंने उसे भी देखा जो काले कपड़े पहने था
एक घड़ी थी उसके पास
घड़ी की चेन थी
बटुआ था और एक बिल्ला था
नाक खुजलाने का औजार भी था उसके पास
मैंने उसे देखा जो अपने बच्चे को हाथ से घसीट रहा था-
बच्चा रो रहा था-
मैंने उसे देखा जो कुत्ता लिए हुए था
मैंने उसे देखा जो गुप्ती लिए हुए था
मैंने उसे देखा जो रो रहा था
मैंने उसे देखा जो गिरजे में जा रहा था
मैंने उसे भी देखा जो लौट रहा था वहाँ से।

मूल फ़्रांसिसी से अनुवाद : हेमन्त जोशी