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ज़िन्दगी यूँ हुई बसर तन्हा / गुलज़ार
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कवि: गुलज़ार
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ज़िंदगी यूँ हुई बसर तनहा
क़ाफ़िला साथ और सफर तनहा
अपने साये से चौंक जाते हैं
उम्र गुज़री है इस कदर तनहा
रात भर बोलते हैं सन्नाटे
रात काटे कोई किधर तनहा
दिन गुज़रता नहीं है लोगों में
रात होती नहीं बसर तनहा
हमने दरवाज़े तक तो देखा था
फिर न जाने गए किधर तनहा