वृक्ष अपने ज़ख्म आखिर किसको दिखलाते
पत्तियों के सिर्फ पतझड़ तक रहे नाते।
उसके हिस्से में बची केवल प्रतीक्षा ही
अब शहर से गाँव को खत भी नहीं आते।
जिनकी फितरत ज़ख़्म देना और खुश होना
किस तरह वे दूसरों के ज़ख़्म सहलाते।
अपनी मुश्किल है तो बस खामोश बैठे हैं
वरना खुद भी दूसरों को खूब समझाते।
खेल का मैदान अब टेलीविज़न पर है
घर से बाहर शाम को बच्चे नहीं जाते।