Last modified on 24 मई 2009, at 16:24

राजा जी के घोड़ा / विष्णु विराट

सम्यक (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:24, 24 मई 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

राजा जी के घोड़ा आए, भैया कानी-बाती कुर।

देखें कहा संदेशा लाए, भैया कानी-बाती कुर।


आई राजा की सवारी। कैसी भई खूब तैयारी।

आए घोड़ा-हाथी-ऊंट। आगे पीछे हैं रंगरूट।

धुत्तुर ढ़ोल नगाड़े बाजे। संग में छोटे मोटे राजे।

आगे रंडी-भडुआ-भाट। जिनके ऊंचे ऊंचे ठाट॥

कैसे तामझाम चमकाए , भैया कानी-बाती कुर।

ये सब पांच बरस में आए। भैया कानी-बाती कुर।


संग में आए लश्कर लाव। बांटें कम्बर और शराब।

नाटक नौटंकी का करते। सबके हाथ रुपे कछु धरते।

दीखें साफसूफ और सादे। करते रंग बिरंगे वादे।

हम तो सूखा ते घबराये। इनने हरियल बाग दिखाए।

फिर सौ मूरख-मन ललचाए। भैया कानी-बाती कुर।

ये दिन बड़ी कठिन में आए। भैया कानी-बाती कुर।


ये है चार दिना का मेला। उखड़े तम्बू, खारिज खेला।

मत कर मोल तोल में देरी। अपनी सगरी उमर अंधेरी।

ये फिर लौटै नहीं बरात। कुत्ता फिर रोवेंगे रात।

आते जाते धूल उड़ाते। बातें करते खूब हवा ते।

इनके भेद समझ में आए। भैया कानी-बाती कुर।

हम हैं सिंहासन के पाये। भैया कानी-बाती कुर।


ये हैं दिल्ली के दरवेश। आएं बदल बदल के भेष।

करते मिलके चौका पंजा। सूतें अपना अपना मंजा।

कागज की पतंग उड़वाते। फिर ढ़ीलन पै पेंच लड़ाते।

खैंचा मारें, डारें रप्पा, सब कुछ स्वाहा सब कुछ हप्पा।

इनके पेट पताल समाए , भैया कानी-बाती कुर।

इनने बड़े-बड़े जुग खाए , भैया कानी-बाती कुर।