दिवा-स्वप्न / राम विलास शर्मा
कवि: राम विलास शर्मा
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वर्षा से धुल कर निखर उठा नीला-नीला
फिर हरे-हरे खेतों पर छाया आसमान,
उजली कुँआर की धूप अकेली पड़ी हार में,
लौटे इस बेला सब अपने घर किसान ।
पागुर करती छाहीं में, कुछ गम्भीर अध-खुली आँखों से,
बैठी गायें करती विचार,
सूनेपन का मधु-गीत आम की डाली में,
गाती जातीं भिन्न कर ममाखियाँ लगातार ।
भरे रहे मकाई ज्वार बाजरे के दाने,
चुगती चिड़ियाँ पेड़ों पर बैठीं झूल-झूल,
पीले कनेर के फूल सुनहले फूले पीले,
लाल-लाल झाड़ी कनेर की, लाल फूल ।
बिकसी फूटें, पकती कचेलियाँ बेलों में,
ढो ले आती ठंडी बयार सोंधी सुगन्ध,
अन्तस्तल में फिर पैठ खोलती मनोभवन के,
वर्ष-वर्ष से सुधि के भूले द्वार बन्द ।
तब वर्षों के उस पार दीखता, खेल रहा वह,
खेल-खेल में मिटा चुका है जिसे काल,
बीते वर्षों का मैं, जिसको है ढँके हुए
गाढ़े वर्षों की छायाओं का तन्तु-जाल ।
देखती उसे तब अपलक आँखें, रह जाती