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हद-ए-निगाह तक ये ज़मीं / शहरयार
Kavita Kosh से
हद-ए-निगाह तक ये ज़मीं है सियाह फिर
निकली है जुगनुओं की भटकती सिपाह फिर
होंठों पे आ रहा है कोई नाम बार बार
सन्नाटों की तिलिस्म को तोड़ेगी आह फिर
पिछले सफ़र की गर्द को दामन से झाड़ दो
आवाज़ दे रही है कोई सूनी राह फिर
बेरंग आसमाँ को देखेगी कब तलक
मंज़र नया तलाश करेगी निगाह फिर
ढीली हुई गिरफ़्त जुनूँ की के जल उठा
ताक़-ए-हवस में कोई चराग़-ए-गुनाह फिर