भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वकील करो / शमशेर बहादुर सिंह

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:48, 4 सितम्बर 2006 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कवि: शमशेर बहादुर सिंह

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

1

वकील करो-
अपने हक के लिए लड़ो |
नहीं तो जाओ
मरो |

2

रटो, ऊँचे स्वर में,
बातें ऊँची-ऊँची
न सही दैनिक पत्रों से लेकर,
खादी के उजले मंचों से
दिन के,
तो रेस्तराओं-गोष्ठियों में ही
उन्हें सुनाते पाये जाओ,
बड़े-बड़े नेताओं के नाम
गाते पाए जाओ!

फिर
हो अगर हिम्मत तो
डटो : यानी-के चोर बाजार में
अपनी साख
जमाओ |

खिलाओ हज़ारों, तो
लाखों कमाओ!
और क्या, हाँ, फिर
सट्टे-फ़स्ट क्लास होटेल-
ठेके-या कि एलेक्शन में
पूंजी लगाओ,
और दो... ‘बड़े-बड़ों’ के बीच में बैठकर...
शान से मूँछों पर ताव!
हाँ, कानी उँगली पे अपनी गाँधी-टोपी
नचाए, नचाए, नचाए जाओ!

3

और आर्ट-
क्या है ? औरत
की जवानी के
सौ बहाने : उसके
सौ
‘फ़ॉर्म’:
जो उसपे झूमे, अदा करो
वही पार्ट :
-इसका भी एक बाज़ार है
समझे न ?

ब्यूटी मार्ट |
इसके माने:
नये से नये मरोड़
दो
रंगों को अंगों को
जिस्म-सी
फिसलती
लाइनों को
सीने में घुलते
शेडों को |

इसमें भी, खोजो तो,
गहरे से गहरे
आदिम
नशों का तोड़
है,
समझे इस कला की
फ़िलासफ़ी?
इसी शराब के
दौर चलाओ,
और ‘आगे’
और ‘आगे’
और ‘आगे’
जाओ
-जाओ !

और देश को ले जाओ
(पता नहीं कहाँ !)

समझे, मेरे
अत्याधुनिक भाई ? !