एक दिन मोहन प्रभात ही पधारे, उन्हें
देख फूल उठे हाथ-पांव उपवन के।
खोल-खोल द्वार फूल घर से निकल आए,
देख के लुटाए निज कोष सुबरन के॥
वैसी छवि और कहीं खोजने सुगंध उडी,
पाई न, लजा के रही बाहर भवन के।
मारे अचरज के खुले थे सो खुले ही रहे,
तब से मुंदे न मुख चकित सुमन के॥