भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पुष्प विकास / रामनरेश त्रिपाठी
Kavita Kosh से
एक दिन मोहन प्रभात ही पधारे, उन्हें
देख फूल उठे हाथ-पांव उपवन के ।
खोल-खोल द्वार फूल घर से निकल आए,
देख के लुटाए निज कोष सुबरन के ।।
वैसी छवि और कहीं खोजने सुगंध उडी,
पाई न, लजा के रही बाहर भवन के ।
मारे अचरज के खुले थे सो खुले ही रहे,
तब से मुंदे न मुख चकित सुमन के ।।