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कवि: डा तारादत्त निर्विरोध

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जो सबको उजियारा बाँटे,

ऐसा दीप बनूँगा


अँधियारे का चोर न छिपकर

उजियारे की गाँठ चुरा ले

और न सबकी आँख चुराकर

दुश्मन भी अधिकार जमा ले

इसीलिए मैं सब राहों में

दीपक वाली राह चुनूँगा।


दीवारों को तोड़ रोशनी

फैलाऊँगा हर द्वारे तक

मंदिर से लेकर मिस्जद तक

गिरिजाघर से गुरुद्वारे तक

सच्ची मानवता की खातिर

नैतिकता की बात गुनूँगा


जिनके दुख को हवा चाहिए

उन्हें खिला सा नीरज दूँगा

किरणें जिनके द्वार न आई

उनको सुख का सूरज दूँगा

जो अभाव में रहे आज तक

पहले उनकी पीर सुनूँगा।

                डा तारादत्त निर्विरोध