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कला और बूढ़ा चांद / रमेश कौशिक

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ओ लिलिपुटियो
तुम्हारी नियति यहाँ कहाँ

नील हरी रत्नाच्छाय घाटियों में
रुपहला प्रकाश बरस रहा है
इन्द्रधनुषी फूलों से पराग झर रहा है
मुक्ताभ छाया पथ में
अप्सराएँ नाच रही हैं
चैतन्य की गहराइयों में
आनन्द कूद रहा है

तुम अपने कर्दम में फँसे
बूढ़े चाँद की कलाओं को निहारो
आज वह बोध के
सर्वोच्च शिखर से बोल रहा है