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तुम्हारे सामने / रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'

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हर नया प्रतिबिंब ढलता है तुम्हारे सामने
हर नया विश्वास पलता है तुम्हारे सामने
फुसफुसाते इन सभी पागल प्रतीकों से कहो
ये समय की खाद को अब तो लगें पहचानने

ताल देने में न, सिजदों में न है इनका जवाब
राज इनकी लगजिशों का भी तुम्हारे सामने
फूल के सहजात काँटे भी पले मधुवात में
जी न पाते क्यों बहारो! ये तुम्हारे सामने

खून है इनकी रगों में भी टहनियों का उन्हीं
है इन्हें भी तो रचा-पोसा इसी उद्यान ने
जो सुला दे हर हकीकत की सदा को, दर्द को
वे न आने दे किसी का गम तुम्हारे सामने

और हम सदके तुम्हारे पारदर्शी सत्र के
हो रहे कितने सधे अभिनय तुम्हारे सामने
वर्तिकाएँ सब बुझी जातीं इधर नेपथ्य में
दीप मणियों के उधर जलते तुम्हारे सामने

सब सुबह गूँगे जनमते और शामें बेनिगाह
पर उगलते स्वर भरे जलवे तुम्हारे सामने
डाल-टूटी आस्थाओं ने जिन्हें दे दी उड़ान
रह गईं थम कर हवाएँ वे तुम्हारे सामने