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अध्याय १५ / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति

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जिन जतन किये तिन योगी ही,
यहि देह की देहिन जान सकै,
बिनु ज्ञान के, जतन कियौ जन वे,
नाहीं देहिन कौ पहचान सकै

रवि माहीं स्थित तेज मेरौ,
जग मोसों प्रकाशित होय रह्यो,
शशि और अनल कौ तेज सबहिं,
मोसों उद्भासित होय रह्यो

में धरनी माहीं करि प्रवेश
निज ओजन सों प्रानिन धारूं
शशि रूप में बन के सोम सुधा ,
औषधियन पुष्ट, जगत तारूं

धरि वैश्वानर अग्नि को रूप,
प्राण और अपान सों युक्त भये,
विधि चार के अन्न पचावत हूँ,
प्राणी जो मोसों युक्त भये

वेदज्ञ तथा वेदांत हूँ मैं,
ज्ञातव्य हूँ मैं ही वेदन सों.
सब प्रानिन के हिय माहीं बसों
मैं सुमिरन ज्ञान अपोहन सों

दुइ भांति के होत जना जग में,
अविनासी एक विनासत हैं,
यहि देहिन तौ अविनासी तथा,
प्राणिन की देह नसावत है

श्रेय पुरुष है अन्य कोऊ ,
वही तीनहूँ लोक समायो है,
धारक, पोषक, व्यापक प्रभु ने,
सगरौ, ब्रह्माण्ड बनायो है

जड़ से हूँ परे जीवात्मा सों,
भी उत्तम हूँ पुरुषोत्तम हूँ,
अथ लोकन और वेदन माहीं
मैं जात कह्यो सर्वोत्तम हूँ

हे अर्जुन ! मोहे ज्ञानी जना
पुरुषोत्तम तत्त्वन सों जाने.
वे नित्य निरंतर नियमन सों.
परमेश प्रभो को ही ध्यावें

निष्पाप हे अर्जुन! ऐसो यहि,
अति गोप रहस्य मैं तोसों कह्यो .
जेहि जानि के जो जन ज्ञानी भयौ ,
कृत कृत्य कृतार्थ , भयौ सों भयौ