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अध्याय १२ / भाग १ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति

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अथ द्वादशोअध्याय

अर्जुन उवाच.
जो भक्त सतत तोरे चिंतन में,
साकार सगुण तोहे ध्यावै.
और निर्गुण ब्रह्म उपासै कोऊ.
कौ दोउन में तोहे पावै

श्री भगवानुवाच
एकाग्र कियौ मन, ध्यान कियौ.
मन, चित्त लगाय जो मोहे भजें
अभ्यास निरंतर , नित्य रुचे.
अस योगी रुचिर, मोरे चित्त सजे

सब इन्द्रियन कौ जिन साध लियौ,
सब प्रानिन हित रत भाव लियौ.
सम भाव समान जो धारे हिये ,
तिन भक्तन कौ अपनाय लियौ

मन बुद्धि सों परब्रह्म होत परे,
अथ ब्रह्म अकथ कोऊ कैसे कहे.?
अविनाशी,अटल आकार बिना.
अस ब्रह्म कौ हिरदय माहीं गहे

निर्गुण, परब्रह्म विभूति सों,
आसक्त मना, जिन होत जना,
तिन साधन में श्रम होत घनयो,
यदि देहन भाव घनत्व घना

सब करम मोहे अर्पित करिकै,
भये मोरे परायण सों सोहैं.
साकार ध्यान योगन सों जिन ,
करि ध्यान अनन्य मोहे मोहैं

जेहि कौ मन चित्त लग्यो मोसों,
हे पार्थ! विषम भाव सागर सों,
तरि जात प्रतीति करौ मोरी,
उतरौ अब तौ भाव सागर सों

मुझ माहीं रमाय के बुद्धि मना,
मुझ माहीं समाय के वास करै.
तिनकौ हित चिंतन, धर्म मेरौ.
बिनु संशय के विश्वास करै

यदि चित्त तेरौ , मोरे मन में
बिनु चंचलता के नाहीं टिके.
तब नित्य धनञ्जय योगन सों,
अभ्यास करौ यहि भांति रुके

अस अभ्यासन कौ साधन में,
यदि समरथ कोऊ न होय सकै,
तब मोरे परायण करम करौ,
यहि मारग मोसों मिलाय सकै