Last modified on 25 दिसम्बर 2009, at 12:24

आया के प्रति / अलेक्सान्दर पूश्किन

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:24, 25 दिसम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: अलेक्सान्दर पूश्किन  » संग्रह: धीरे-धीरे लुप्त हो गया दिवस-उजाला
»  आया के प्रति

मेरे बुरे दिनों कि साथी, मधुर संगिनी
बुढ़िया प्यारी, जीर्ण-जरा!
सूने चीड़ वनों में तुम्हीं राह देखतीं
कब से मेरी, नज़र टिका।
पास बैठकर खिड़की के भारी मन से
तुम पहरेदारी करतीं।
और सिलाइयाँ दुर्बल हाथों में तेरे,
कुछ क्षण को धीमी पड़तीं।
टूटे-फूटे फाटक से अँधियारे पर
दॄष्टि तुम्हारी जम जाती,
और किसी बेचैनी, चिन्ता, शंका से
हर पल धड़क उठे छाती,
कभी तुम्हें लगता है जैसे छाया-सी
सहसा है सम्मुख आती...


रचनाकाल : 1826