भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
...के नाम / अलेक्सान्दर पूश्किन
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:39, 25 दिसम्बर 2009 का अवतरण
|
मुझे याद है वह अद्भुत्त क्षण
जब तुम मेरे सम्मुख आईं,
निर्मल, निश्छल रूप छटा-सी
जैसे उड़ती-सी परछाईं।
घोर उदासी, गहन निराशा
जब जीवन में कुहरा छाया,
मन्द, मृदुल तेरा स्वर गूँजा
मधुर रूप सपनों में आया।
बीते वर्ष, बवंडर आए
हुए तिरोहित स्वप्न सुहाने,
किसि परि-सा रुप तुम्हारा
भूला वाणी, स्वर पहचाने।
सूनेपन, एकान्त-तिमिर में
बीते, बोझिल, दिन निस्सार
बिना आस्था, बिना प्रेरणा
रहे न आँसू, जीवन, प्यार।
पलक आत्मा ने फिर खोली
फिर तुम मेरे सम्मखु आईं,
निर्मल, निश्छल रूप छटा-सी
मानो उड़ती-सी परछाईं।
हृदय हर्ष से फिर स्पन्दित है
फिर से झंखृत अन्तर-तार,
उसे आस्था, मिली प्रेरणा
फिर से आँसू, जीवन, प्यार।
रचनाकाल : 1825