तुम्हे याद हो के ना याद हो / मोमिन
लेखक: मोमिन
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वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो के न याद हो
वही यानी वादा निबाह का तुम्हें याद हो के न याद हो
वो नये गिले वो शिकायतें वो मज़े मज़े की हिकायतें
वो हर एक बात पे रूठना तुम्हें याद हो के न याद हो
कोई बात ऐसी अगर हुई जो तुम्हारे जी को बुरी लगी
तो बयाँ से पहले ही भूलना तुम्हें याद हो के न याद हो
सुनो ज़िक्र है कई साल का, कोई वादा मुझ से था आप का
वो निबाहने का तो ज़िक्र क्या, तुम्हें याद हो के न याद हो
कभी हम में तुम में भी चाह थी, कभी हम से तुम से भी राह थी
कभी हम भी तुम भी थे आश्ना, तुम्हें याद हो के न याद हो
हुए इत्तेफ़ाक़ से गर बहम, वो वफ़ा जताने को दम-ब-दम
गिला-ए-मलामत-ए-अर्क़बा, तुम्हें याद हो के न याद हो
वो जो लुत्फ़ मुझ पे थे बेश्तर, वो करम के हाथ मेरे हाथ पर
मुझे सब हैं याद ज़रा ज़रा, तुम्हें याद नो कि न याद हो
कभी बैठे सब हैं जो रू-ब-रू तो इशारतों ही से गुफ़्तगू
वो बयान शौक़ का बरमला तुम्हें याद हो कि न याद हो
वो बिगड़ना वस्ल की रात का, वो न मानना किसी बात का
वो नहीइं नहीं की हर आन अदा, तुम्हें याद हो कि न याद हो
जिसे आप गिन्ते थे आश्ना जिसे आप कहते थे बावफ़ा
मैं वही हूँ "मोमिन"-ए-मुब्तला तुम्हें याद हो के न याद हो