आत्मकथ्य / शलभ श्रीराम सिंह
वैज्ञानिक उपलब्धियों का दुरूपयोग, प्रौद्योगिकी के आधार पर हुआ असंतुलित विकास, पर्यावरण का निरंतर प्रदूषण की चपेट में आना, पूंजी का लाभ-लोभ की दृष्टि से किया गया असमान वितरण, राजनीति का मूल्यहीनता की दिशा में धकियाया जाना, ज्ञान और व्यवहार की भिन्नता की प्रकृति को सींचने वाली शिक्षा के क्षेत्र से प्रतिभ-प्रतिबध्द भद्रजनों का पलायन और युवा मन की प्रश्नाकुल संचेतना को सुसंस्कारित करके व्यापक राष्ट्रीय हित में नियोजित करने के बदले छुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए उपयोग में लाते हुए अपसंस्कृति के दलदल में धकेला जाना,आदि मसले हमारे समय के समक्ष एक जटिल प्रश्नावली के रूप में खड़े हैं और हमारे समाज को भविष्यहीनता के जंगल की और हाँक रहे हैं। ऐसे में यदि हमारे समय की महत्त्वपूर्ण प्रतिभाएँ हताश और हतवाक होकर शब्द-कर्म की सार्थकता को संदेह की दृष्टि से देखने लगे अथवा उसकी निरर्थकता को रेखांकित करते हुए रचनाधर्मिता की उपयोगिता के सामने सवाल खड़ा करने पर उतर आएँ तो आश्चर्य की कोई बात नहीं है। प्रश्न यह है कि क्या उन प्रतिभाओं की क्षमता-सीमा को अपने समाज की प्रज्ञा-सीमा मान लिया जाये? हारे हुए महारथियों की पुरानी पड़ गयी शब्द-नीति से जन्मी विफलताओं के रोदन को महत्त्व देने का समय मेरे विचार से यह नहीं है। इसके ठीक विपरीत यह समय नई प्रतिभाओं की ओर स्नेह और सम्मान के साथ देखने का है, उनके समीप जाने का है। उनके साथ संवादरत होकर अपनी सोच और समझ को धारदार बनाते हुए संवेदना के क्षेत्र में ऊसर की प्रकृति को बढ़ावा देने वाली समस्त परजीवी वनस्पतिधर्मा प्रवृत्तियों को क़तर देने का है, जिनके चलते निराशा का यह वातावरण निर्मित हुआ है। यदि आज की परिस्थितियों की पड़ताल सतर्क और सक्रीय दृष्टि से की जाए तो स्पष्तः यह दिखाई देगा कि रचनात्मकता के लिए इससे बेहतर समय संसार के प्रतिभा-पुरुषों के लिए आज से पहले कभी रहा ही नहीं। चुनौतियों का मोर्चा जितना
जबर्दस्त होता है, प्रतिभाओं के लिए खुद को आजमाने के अवसर भी उतने ही अधिक होते हैं। इतिहास के लम्बे यात्रा-पथ पर चलकर आए इन अवसरों की उपेक्षा का समय यह नहीं है।