Last modified on 28 दिसम्बर 2009, at 19:23

अँधेरे में / चंद्र रेखा ढडवाल

द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:23, 28 दिसम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चंद्र रेखा ढडवाल |संग्रह=औरत / चंद्र रेखा ढडवाल }}…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


तुमने बिछाया
वह बिछी
तुमने ताना
वह तन गई
सिर नवा कर लिया
जो दिया तुमने
तुमने माँगा
तो लौटाया
बिन हील हुज्जत
लौ नहीं हुई
पर जलती रही
तपी नहीं पर पिघलती रही
तुम्हारे हुक़्मनामों के बावजूद लेकिन
पढ़ती रही अपने हक़ में लिखी गई
किताबों के पन्ने भी
रखती रही उनमें
तितलियों के प्पर भी
उकेरती रही नखों से
हाशियों में अपने लिए
सूरज / नदी / बेल-बूटे
पंक्ति-बद्ध अक्षरों को
कभी नारों -सा उछालते
कभी झण्डे-सा उठाते
और कभी भाँजते तलवार की तरह
लहुलुहान हथेलियों को
छापती रही कोरे काग़ज़ पर
दीवार परादमी की पीठ पर
ज्यूँ की त्यूँ
ताकि आने वाली पीढ़ियों को
अँधेरे में इक चिराग़ मिले