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ब्लैकमेलर-2 / वेणु गोपाल

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वह
घूरता, ठहाके लगाता, गरजता और कहता
'जवाब दो। आख़िरी जवाब।'

मैं चुप से भी ज़्यादा जवाबहीन हूँ। लेकिन
मेरे सन्न चेहरे के पीछे सोच का
एक समंदर खलबला रहा है। मंथन हो रहा है। मेरा
अतीत सुमेरु पर्वत है तो वासुकि
मेरी चिंतन-शक्ति। दोनों सिरों पर
मैं ही हूँ। जो
रत्न निकलता है, वह एक पुरुष
होता है। पेरी मेसन! उसकी
धीर-गम्भीर वाणी
किसी भी ब्लैक-मेलर से निबटने के
तीन उपाय बतलाती है। किस
पर अमल करूँ?

पहला?
उसकी मांग पूरी कर देना?
हरगिज़ नहीं। मुझसे कविता के छूटने का मतलब
होगा नदी के उस बहाव का छूट जाना, दूब से
हरेपन का नाता टूट जाना। मेरे
शरीर के तापमान का ज़ीरो डिग्री तक
उतर जाना। नज़रों की समूची हदों में
मौत ही मौत का पसर जाना।

फिर?
दूसरा?
कोई फ़ायदा नहीं। कि ऎसी
कोई पुलिस नहीं है इस दुनिया में
जो उसे पकड़ सके और

सज़ा दे सके।

तो फिर?
तीसरा?

ठीक है। वही मुझे जँचता है। न रहे बाँस और
न बजे बाँसुरी। मेरी
आँखें लाल होने लगती हैं। दिमाग़
झनझनाने लगता है। योजना
बनाने लगता हूँ कि कैसे? और कब?

और
तभी वह आकाश-फाड़ू ठहाके के साथ
प्रकट हो जाता है। उसकी
आँखों में एक पेशेवर क्रूर चमक कौंधती है।

--'नहीं। तुम मेरी हत्या नहीं कर सकते। देखो।
मेरी ओर देखो मैं कौन हूँ।'

और
तब मैं उसे एक बार फिर पहचानता हूँ। और
एक अतल गहराई में गिरने लगता हूँ। जिस्म
के ठंडेपन को सहने की
एक नाकामियाब कोशिश में
मुब्तिला हो जाता हूँ। और

मेरे ललाट से चूते पसीने की धारों में से
उसकी आवाज़ उभरती है--

'तुम मुझसे बच नहीं सकते। आज
नहीं तो कल-- तुम्हें जवाब देना ही पड़ेगा। फ़ैसला
करना ही पड़ेगा। कल
मैं कुछ कहने की कोशिश में
बुदबुदाता हूँ लेकिन दरअसल चीख़ता हूँ

और उसके जा चुकने पर भी मैं
चीख़ता ही रहता हूँ

कल-कल-कल!