भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वहीं उचटेगी नींद / शलभ श्रीराम सिंह

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:23, 4 जनवरी 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शलभ श्रीराम सिंह |संग्रह=उन हाथों से परिचित हूँ…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हर तिलिस्म टूटता है एक दिन
एक दिन होता है हर जादू बेअसर
छिन्न-भिन्न होता है हर इंद्रजाल
एक न एक दिन
नींद के उचटने पर
 
सपनों को टूटना ही है
अपने बारीक़ से बारीक़
विस्तार के साथ बेवक़्त -बेमुकाम
हर सपने का अपना एक भयानक मोड़ है

वहीं छूटेगी प्रेमिका की बाँह
प्रेमी का कन्धा छूटेगा वहीं
वहीं छूटेगी बच्चे की उंगली
दोस्त का साथ वहीं छूटेगा
वहीं उचटेगी नींद
हर सपने का अपना एक भयानक मोड़ है


रचनाकाल : 1992 साबरमती एक्सप्रेस