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सहज का समादर / शलभ श्रीराम सिंह

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जो सहज उपलब्ध है
उसका समादर करो
उससे ही चलाओ काम।

मत करो अप्राप्य की इच्छा
अप्राप्य या दुष्प्राप्य की इच्छा
तुम्हारी व्यर्थता को सिद्ध कर देगी
बाँध देगी तुम्हें सीमा में।

है सहज ही में विराट-विकास
सहज है निस्सीम
सहज के निस्सीम को पहचानना है कठिन
जानना है कठिन उसकी साँस के संगीत को भी
क्योंकि स्वाभाविक सरल है वह।

पालकर दुष्प्राप्य की आधी-अधूरी चाह
जटिल यों मत करो
जीवन की उजालों से भरी वह राह
जिस पर फूल बनकर मुस्कुराते हैं तुम्हारे स्वप्न
जिनमें रंग हैं उम्मीद के, विश्वास के, बल के

कल नहीं आया कभी
कल गया,
आज का जो सत्य है स्वीकार कर उसको
स्वयं में गहरे ...कहीं गहरे तनिक उतरो ,
जो सहज उपलब्ध है उसका समादर करो।


रचनाकाल : 1992, मसोढ़ा