भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चारागर हार गया हो जैसे / परवीन शाकिर

Kavita Kosh से
Shrddha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:11, 30 जनवरी 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=परवीन शाकिर |संग्रह=खुली आँखों में सपना / परवीन …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चारागर हार गया हो जैसे
अब तो मरना ही दवा हो जैसे

मुझसे बिछड़ा था वो पहले भी मगर
अब के ये ज़ख्म नया हो जैसे

मेरे माथे पे तेरे प्यार का हाथ
रूह पर दस्त ए सबा हो जैसे

यूँ बहुत हंस के मिला था लेकिन
दिल ही दिल में वो ख़फ़ा हो जैसे

सर छुपाएँ तो बदन खुलता है
ज़ीस्त मुफ़लिस की रिदा हो जैसे