रचनाकार: मैथिलीशरण गुप्त
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धर्मराज भी कंक बने थे वहाँ विराजे,
लगा वज्र-सा उन्हें मौलि पर घन से गाजे।
सँभले फिर भी किसी तरह वे ‘हरे, हरे,’ कह !
हुए स्तब्ध- सभी सभासद ‘अरे, अरे,’ कह !
करके न किन्तु दृक्-पात तक कीचक उठा, चला गया,
मानो विराट ने चित्त में यही कहा कि ‘भला गया’।
सम्बोधन कर सभा-मध्य तब मत्स्यराज को,
बोली कृष्णा कुपित, सुना कर सब समाज को।
मधुर कण्ठ से क्रोध-पूर्ण कहती कटु वाणी,
अद्भुत छबि को प्राप्त हुई तब वह कल्याणी।
ध्वनि यद्यपि थी आवेग-मय, पर वह कर्कश थी नहीं,
मानो उसने बातें सभी वीणा में होकर कहीं।
“भय पाती है जहाँ राजगृह में ही नारी,
होता अत्याचार यथा उस पर है भारी।
सब प्रकार विपरीत जहाँ की रीति निहारी,
अधिकारी ही जहाँ आप हैं अत्याचारी।
लज्जा रहनी अति कठिन है कुल-वधुओं की भी जहाँ,
हे मत्स्यराज, किस भाँति तुम हुए प्रजा-रंजक वहाँ।
छोड़ धर्म की रीति, तोड़ मर्यादा सारी,
भरी सभा में लात मुझे कीचक ने मारी,
उसका यह अन्याय देख कर भी भय-दायी,
न्यायासन पर रहे मौन तुम बन कर न्यायी !
हे वयोवृद्ध नरनाथ क्या, यही तुम्हारा धर्म है ?
क्या यही तुम्हारे राज्य की राजनीति का मर्म है ?
तुमसे यदि सामर्थ्य नहीं है अब शासन का,
तो क्यों करते नहीं त्याग तुम राजासन का ?
करने में यदि दमन दुर्जनों का डरते हो,
तो छूकर क्यों राज-दण्ड दूषित करते हो !
तुमसे निज पद का स्वाँग भी, भली भाँति चलता नहीं।
आधिकार-रहित इस छत्र का भार तुम्हें खलता नहीं ?
प्राणसखी जो पञ्च पाण्डवों की पाञ्चाली,
दासी भी मैं उसी द्रौपदी की हूँ आली।
हाय ! आज दुर्दैव-विवश फिरती हूँ मारी,
वचनबद्ध हो रहे वीरवर वे व्रत-धारी।
करता प्रहार उन पर न यों दुर्विध यदि कर्कश कशा
तो क्यों होती मेरी यहाँ इस प्रकार यह दुर्दशा ?
अहो ! दयामय धर्मराज, तुम आज कहाँ हो ?
पाण्डु-वंश के कल्पवृक्ष नरराज, कहाँ हो ?
बिना तुम्हारे आज यहाँ अनुचरी तुम्हारी,
होकर यों असहाय भोगती है दुख भारी।
तुम सर्वगुणों के शरण यदि विद्यमान होते यहाँ,
तो इस दासी पर देव, क्यों पड़ती यह विपदा महा ?
तुम-से प्रभु की कृपा-पात्र होकर भी दासी,
मैं अनाथिनी-सदृश यहाँ जाती हूँ त्रासी !
जब आजातरिपु, बात याद मुझको यह आती,
छाती फटती हाय ! दुःख दूना मैं पाती।
कर दी है जिसने लोप-सी नाग-भुजंगों की कथा,
हा ! रहते उस गाण्डीव के हो मुझको ऐसी व्यथा !
जिस प्रकार है मुझे यहाँ कीचक ने घेरा,
होता यदि वृत्तान्त विदित तुमको यह मेरा।
तो क्या दुर्जन, दुष्ट, दुराचारी यह कामी,
जीवित रहता कभी तुम्हारे कर से खामी !
तुम इस अधर्म अन्याय को देख नहीं सकते कभी,
हे वीर ! तुम्हारी नीति की उपमा देते हैं सभी।
क्रूर दैव ने दूर कर दिया तुमसे जिसको,
संकट मुझको छोड़ और पड़ता यह किसको ?
यह सब है दुरदुष्ट-योग, इसका क्या कहना ?
मेरा अपने लिए नहीं कुछ अधिक उलाहना।
पर जो मेरे अपमान से तुम सबका अपमान है।
हे कृतलक्षण, मुझको यही चिन्ता महान है !”
सुन कर निर्भय वचन याज्ञसेनी के ऐसे,
वैसी ही रह गई सभा, चित्रित हो जैसे।
कही हुई सावेग गिरा उसकी विशुद्ध वर,
एक साथ ही गूँज गई उस समय वहाँ पर।
तब ज्यों ज्यों करके शीघ्र ही अपने मन को रोक के,
यों धर्मराज कहने लगे उसकी ओर विलोक के, -
“हे सैरन्ध्री, व्यग्र न हो तुम, धीरज धारो,
नरपति के प्रति वचन न यों निष्ठुर उच्चारो
न्याय मिलेगा तुम्हें, शीघ्र महलों में जाओ,
नृप हैं अश्रुवृत्त, न को दोष लगाओ।
शर-शक्ति पाण्डवों की किसे ज्ञात नहीं संसार में ?
पर चलता है किसको कहो, वश विधि के व्यापार में ?”