भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
फिर वही लहरें / आलोक श्रीवास्तव-२
Kavita Kosh से
Himanshu (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:12, 12 फ़रवरी 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-२ |संग्रह=जब भी वसन्त के फूल खि…)
फिर वही लहरें टूटती हैं
उसी सागर पर
फिर आया हूँ मैं
यह दिन कोई और दिन है
जिसमें कोई परिचित स्वर नहीं
फूलों के खिलने की बेला
बीत गई
अब यहां वसंत भी नहीं आयेगा
लहरें टूटती होंगी
अनजान
हवाओं के इशारे पर
फूल खिले-न-खिले
सागर कभीं उदास नहीं होता ।