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दीप्ति ही तुम्हारी सौन्दयता है / तारा सिंह
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रचनाकार: तारा सिंह
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- तुम ज्वलित अग्नि की सारी प्रखरता को
- समेटे बैठी रहो, नववधू - सी मेरे हृदय में
- दीप्ति ही तुम्हारी सौन्दर्यता है, इसे चिनगारी
- बन छिटकने मत दो इस अभिशप्त भुवन में
- तुम्हारे कमल नयनों से जब रेंगती हुई
- निकलती है आग , मैं दग्ध हो जाता हूँ
- दरक जाता है मेरा वदन , जैसे आवे में
- दरक जाता है कच्ची मिट्टी का पात्र
- मेरी बाँहों में आओ, मेरे हृदय की स्वामिनी
- कर लेने दो अपने प्रेम व्योम का विस्तार
- दो फलक दो, दो उरों से मिल लेने दो सरकार
- अंग - अंग तुम्हारा जूही, चमेली और गुलाब
- चंद्र विभा,चंदन-केसर तुम्हारे पद-रज का मुहताज
- सूख चला गंगा - यमुना का पानी
- हेम कुंभ बन भर जाओ तुम
- यात्री हूँ,थका हुआ हूँ ,दूर देश से
- आया हूँ,दे दो अपने काले गेसुओं की साँझ तुम
- अँधकार के महागर्त में देखना एक दिन
- सब कुछ गुम हो जायेगा, तुम्हारी ये
- जवानी, अंगों की रवानगी, सभी खो जायेंगी
- इसलिए आओ, खोलो अपने लज्जा -पट को
- अधरों के शूची -दल को एक हो जाने दो
- डूबती हुई किश्तियों से किलकारी उठने दो