भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दीप्ति ही तुम्हारी सौन्दयता है / तारा सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम ज्वलित अग्नि की सारी प्रखरता को
समेटे बैठी रहो, नववधू - सी मेरे हृदय में
दीप्ति ही तुम्हारी सौन्दर्यता है, इसे चिनगारी
बन छिटकने मत दो इस अभिशप्त भुवन में
तुम्हारे कमल नयनों से जब रेंगती हुई
निकलती है आग , मैं दग्ध हो जाता हूँ
दरक जाता है मेरा वदन , जैसे आवे में
दरक जाता है कच्ची मिट्टी का पात्र
मेरी बाँहों में आओ, मेरे हृदय की स्वामिनी
कर लेने दो अपने प्रेम व्योम का विस्तार
दो फलक दो, दो उरों से मिल लेने दो सरकार
अंग - अंग तुम्हारा जूही, चमेली और गुलाब
चंद्र विभा,चंदन-केसर तुम्हारे पद-रज का मुहताज
सूख चला गंगा - यमुना का पानी
हेम कुंभ बन भर जाओ तुम
यात्री हूँ,थका हुआ हूँ ,दूर देश से
आया हूँ,दे दो अपने काले गेसुओं की साँझ तुम
अँधकार के महागर्त में देखना एक दिन
सब कुछ गुम हो जायेगा, तुम्हारी ये
जवानी, अंगों की रवानगी, सभी खो जायेंगी
इसलिए आओ, खोलो अपने लज्जा -पट को
अधरों के शूची -दल को एक हो जाने दो
डूबती हुई किश्तियों से किलकारी उठने दो