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अब भी / चंद्र रेखा ढडवाल
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मेरे होने पर
कालिख मलते
मेरे पाँव तले से
रास्ते खींचते
स्याह अँधेरों में से
निकलना तो चाहती हूँ
पर रौशनी अब भी
कभी-कभार चमक जाते
जुगनुओं के पिछवाड़े
बोझ भर ही है.