ख़ामोशी एक ताबूत बनाती है
और यह फ़िज़ा मेरी दरगाह
बन जाती है।
उस पुरसुकून घेरे से बाहर आकर
पाता हूँ कि लोगबाग,
उनकी ख़बरें, भीड़-भाड़,
रोज़मर्रे की धमाचौकड़ी
गोष्ठी, समारोह जुलूस,
जन्म से मृत्यु तक के विधि-विधान,
हर ख़ास अवसर पर
मजमे में हाज़िरी लगाते हुए
सबकी शर्तों पर मत्था टेक कर
आख़िरश अपना सिर धुनता हूँ।
मेले में माँ से बिछुड़े बच्चे-सा मैं
विषण्ण रहता हूँ इन दिनों।
मीना बाज़ार में