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प्रेम-पाल पलटि उलटि पतवारि-पति / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
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प्रेम-पाल पलटि उलटि पतवारी-पति
केवल परान्यौ कूब-तूँबरी अधार लै ।
कहै रतनाकर पठायौं तुम्हैं तापै पुनि
लादन कौं जोग कौ अपार अति भार लै ॥
निरगुन ब्रह्म कहौ रावरौ बनैहै कहा
ऐहै कछु काम हूँ न लंगर लगार लै ।
विषम चलावौ ज्ञान-तपन-तपी ना बात
पारी कान्ह तरनी हमारी मँझधार लै ॥69॥