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जहाँ जो कुछ भी अलक्षित / रवीन्द्र दास
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जहाँ जो कुछ भी अलक्षित रह गया है मैं वही हूँ, मौन और एकांत क्षण में । पेड़ से पत्ता गिरा था टूटकर तीर रहा था जलप्लावन में कभी फिर हुआ क्या? बैठ कर उसपर बची थी एक चींटी बाढ़ का थामना नियत था थम गई थी और चींटी को मिली धरती समूची सड़ गया पत्ता कहीं जो गड़ गया था मैं वही हूँ कहीं कुछ भी जो अलक्षित रह गया है मैं वही हूँ, मैं वही हूँ।