Last modified on 15 फ़रवरी 2007, at 17:04

हिमालय प्रयाण / सुभाष काक

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:04, 15 फ़रवरी 2007 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

रचनाकार: सुभाष काक

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

(१९७७, "लन्दन पुल" नामक पुस्तक से)


याद हैं वह अंगारे

आग बुझने से बचती हुई

वात उछलती हुई जैसे उपेक्षित भूत

तम्बू के हाथी कान थपथपाते हुए

भूले मानचित्र

जल का सरल नाद

तुम और मैं

हमारी घनिष्ठता?


क्या आवारा बेचारा चले

चीड पेडों के बीच से

हमारे पुराने भाई मूर्तिमान

बहुत प्रतीक्षा की इन नें

उनकी याद सो रही है

जब वह जागेंगे

हम सो रहे होंगे,

याद करो।


सुबह जागी है आलसी

अंगों में सुलगती आग

चिडियों का आलाप

घास ओस से नील हुई

पलकें फडफडाईं और मुस्कान

ठंडी हवा बीच उडती आई

चलो टीन गर्माएं

और फिर बाल संवारें।


क्या पर्वत बात करता है?

घुमाऊ पथ पर

खुले स्थान पर

पृथिवी की सूजन दीखती है

टूटी शिला के दान्त

यहां और वहां

और निचली ढाल की घास और चरीले से दूर

पर्वत का ध्यानमग्न मुखमण्डल

आंखें बन्द

उदात्त मस्तक, सीधी नाक

और वर्षा के बीच सुन पडता है

इसके वक्ष का धीमा शब्द।


क्या तुमने शरीर दिखाया है

पर्वत नदी को

इसके फेन को चूमा

इससे पीठ को रगडा

और मित्र के साथ मुक्त पाया

इस विशाल स्नानशाला में?

कितनी रुक-रुक के

गर्मी वापस आए

और जब यह फैले

और हम फिर केवल नाम हैं,

समय लौट आया

पर्वत की पट्टी को चढने का।

मेघ के उतरने के बाद

वर्षा का कडक से गिरना

टट्टू काम्प रहे

उनकी उदास विशाल आंखें अन्दर देख रहीं

और एक भूरा चूहा रास्ता सूंघ रहा

अपने जल-भरे बिल की ओर

क्या यह बन्धु पायेगा

या इसे उन्हें ढूंढने

नदी तट जाना होगा?


ऋतु में जादू हैः

जडें पकडे खींच रहीं मिट्टी

जुड गईं चीडशंकु, अविलीद और बिच्छुओं के साथ

ढाल पर फिसलती हुईं।

क्यों जल जोडता है और गिराता है

शक्ति देता है आत्महत्या के पथ पर,

क्यों वात सुखाती है और जमाती,

सूर्य गरमाता है और जलाता,

पृथिवी सहारती है और दबाती,

क्यों तत्त्वसंकर बढता जाता है?

तथापि नये रूप आते हुए चिल्ला रहे

इस पंकिल रक्ती वसन्त में --

उनके शोकगीत कौन गायेगा

उनके घर हिमक्षेत्र में खोदेगा

जंगल के मैदान में आग बनाएगा?


पहाडी पर प्रकाश बिन्दु तारा नहीं

चरवाहा और पत्नी बात कर रहे है

यादें बांटते हुए

दोनों सौ दिन की गन्ध ओढे हुए हैं

माखन, स्वेद, मूत्र, अन्य रस

धरती का आर्द्र

कढी, ओषधी और धुआं

क्यों वह मिटा लें, जो था?

और शिविर मृदु श्वास ले रहा

क्या तुम अन्धेरे का रिरियाना सुन रहे हो

और बालों का त्वचा में अंकुरण?


जैसे रात्रि मीठे से अपनी चादर बना रही

न ऋक्ष और नाहीं भयावक शब्द

शरीर शान्त धरती पर लेटा हुआ,

क्यों मन तब आग्रही मांगता है नई यात्रा

उन पथ पर जहां हम पहले चले थे?

आग और वात

आप और मिट्टी

बहुत हैं हिमालय पर

परन्तु मन दौडता है प्राचीन छायाओं साथ,

विद्यालय और पिता

मित्र और माता

गाडी और वस्त्र,

और पहुचता है पर्वतीय आश्रम।


यह सचमुच व्यर्थ है,

हम आप हैं

हम आप है।