मृतक नायक / सुभाष काक
रचनाकार: सुभाष काक
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(१९७३, "मृतक नायक" नामक पुस्तक से)
१
मैं वह नही जो दीखता हूं
मैं स्वयं ही भूत हूं।
जब मैं निर्जीव हुआ
मेरी आत्मा अस्वीकृत हुई
स्वर्ग और नरक को
लडखडाई वापिस तब
मेरे अस्थिपिञ्जर में।
२
हम सुन्दर हैं कि हम मर जाते हैं
जब समय की उडान रुकी
एक क्षण सहस्र वर्ष हुआ
मैं धूल था, एक विचार था
मेरी चाह थी कि शरीर होऊं
क्योंकि मैंने स्पर्श नही किया
भरपूर नहीं
और जब मेरा जमा हुआ शरीर पिघला
प्राणों की सरसराहट से,
वह आनन्द था।
३
शब्द निःस्तब्धता से निकला
स्वतन्त्रता कारागार हो
पर नीरवता
नीरवता को नहीं भाती
हृदय के कांपने को नहीं भाती
पर सौन्दर्य कौन मांगता है
अतः मुझे गीत गाने दो
मुझे घण्टा बजाने दो।
४
मैं हर दिन मृत्यु को
प्रातराश के दूध की तरह पीता हूं
इस प्रभात को जब मैं जागा
श्वेत धूप के धब्बे मेरे कमरे में थे
मैंने रात के वस्त्र पलंग के आस-पास बिखरा दिये
चौकी पर थाल
सुरुचिपूर्ण संजोए थे
कमरे का उपस्कार
ठीक स्थान पर था
वैसे ही जैसे घर जो रुका हुआ है।
मैं प्रातराश खा न पाया।
५
पक्षी उड गये जब में पहुंचा
मैंने दाना हाथों में बटोरा
मेरा पास चाकू न था
पर पक्षी न आये
मेरे हाथ थक गये और गिरते दानों से
पौधे निकले
और श्वेत फूल
कमल भरपूर।
६
मुझे पीने दो
मुझे और पीने दो
जैसे मैं झुका चीत्कार हुआ
नेत्र उठे एक राक्षस देखा
अर्धनर, अर्धनारी
अपने ही वक्ष को पुचकारता हुआ
मैंने देखा कि नदी का पानी
राक्षस की हचकती छाती के साथ
उठ बैठ रहा,
मेरे हाथ का ताल भिन्न है
मैं केवल झाग उठा पाता हूं।
मुझे पीने दो
तो क्या यदि मांस पिघला है
और मेरे हाथों की अस्थियां
पकड नहीं पातीं
जो मैं देखता हूं
अन्धेरा है
चिकित्सा प्रयोगशाला में
मानचित्र जैसा हूं,
पर खोखला तो भरने दो।
७
अन्तिम वेनपक्षी
अग्नि की ओर उडा
जलने के लिये
राख में ढलने के लिये
उठने कि लिये
युवा और निष्पाप।
अग्नि के समीप पहुंचा ही था
आंखें बन्द अन्तिम छलांग सोचता
कि किसी ने कठोरता से खींच लिया --
पुनर्जन्म नहीं था यह --
एक व्यक्ति ने गला दबोचा था
दूसरे हाथ में छुरी थी उसके।
झट दो प्रहार से
उसने पंख काट दिये।
अन्तिम वेनपक्षी
अभी वहीं पडा है
अचल, भावशून्य
निर्जीव
पर मृत भी नहीं
प्राण आंखों में हैं
जो धीरे हिल रही हैं
आकाश की परीक्षा कर रही हैं
निकट आग
कब की बुझ गई।
८
मैं पूरी रात सोता हूं
पर आराम नहीं
पूरे दिन मेरा मन
उदासीन है
और मेरा शरीर
अपरिचित चाह से
अन्धेरे का आकांक्षी है।
कल रात मैंने ठानी
रहस्य को जानने की
घडी का घण्टी लगाई
दो बजे की
जब मैं उठा उस पहर
मैंने देखे पिशाच
मंडराते हुए
रक्त पी रहे।
मेरे हाथ अशक्त थे
सिर में अन्दर
खटखटाहट थी
मैं मूर्च्छित हुआ।
आज मैं उनींदा हूं
अंग पीडित हैं
चाह से
कि अन्धेरा उतर आए।
९ कीडे
मैं जंगले पे खडा
अस्थियों को शरद् धूप में गरमा रहा
मेरी पलकों पर सूर्य किरणें
लाखों बारीक गोलों में बिखरीं
और फिर चींटियां चारों ओर रेंगने लगीं।
वह बहती आईं
मृत्यु की गन्ध जैसी
और कामनाओं को खा गईं।
जैसे मैं कार्यालय में बैठा प्रतीक्षित
वेश्या समान, याद कर रहा,
कितने श्मशान घाट मैंने देखे हैं,
कि वह आई।
उसके आग्रह पर
अपनी समझ के विपरीत
मैंने उसे बाहों में समेटा।
जब होंठ होंठ से मिले
वह पृथिवी पर ढेर हुई --
मेरी सांस ने
जान ले ली --
मैं पुनः प्रेम नहीं करूंगा।