भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बेताल की छब्बीसवीं कथा / अवतार एनगिल

Kavita Kosh से
सम्यक (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:20, 24 अप्रैल 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रात के सन्नाटे को
मौन के मंत्र को भेदते हुए
राजा विक्रमार्क
फिर जंगल में गए
रुके
पेड़ निहारा
वेताल का शव उतारा
और कंधे पर लाद कर
श्मशान को चल दिये

मुर्दा बोला :
हे,हठी राजा !
अर्थ मौन में नहीं
शब्द में है
क्योंकि वह अर्थ का वाहन है

मैं पूछता हूँ
तुम ज़िन्दा होते हुए भी
क्यों मौन का मुर्दा ढो रहे हो
और मैं, मुर्दा होकर भी
शब्दों का रथ
हांक रहा हूं
हे राजन !
यदि जान बूझकर
तुमने मेरे प्रश्न का उत्तर न दिया
तुम्हारा ज्ञानी मस्तक
लाखों टुकड़ों में बंटकर
दसों दिशाओं में बिखर जाएगा

तब विक्रमार्क बोला:
हे वेताल !
तुम्हारे प्रश्न की ज़मीन में
उत्तर का बीज पहले से पड़ा है
मैंने तो तेरे ही सत्य को घड़ा है
तुम्हीं ने कहा
कि शब्द ही
अर्थ का वाहन हैं
और फिर पूछा
कि विक्रमार्क क्यों
जीवित होते हुए भी
मौन का मुर्दा ढो रहा है
और तुम
मुर्दा होने पर भी
शब्दों का रथ हाँक रहे हो

हे वेताल !
शब्द तो मात्र एक रस्ता है
जबकि मौन एक मंज़िल है
जानने के बाद
सभी शब्द
अपने आर्थ खो देते हैं
और शब्दों के व्यापारी
अंत में रो देते हैं
तभी तो ऋषि
मौन की ग़ुफा से
बाहर नहीं निकलना चाहता

पर ऋषि नहीं
राजा हूं मैं
बार-बार मेरा मौन टूटेगा
और मैं तुम्हारा वाहन बनकर
मुर्दा शब्द को
अर्थ की मंज़िल तक पहुँचाऊँगा

विक्रमार्क का मौन टूटा
वेताल उसके कंधे से छूटा
और वापिस जाकर
पेड़ पर लटक गया
जिज्ञासु राजा
एक बार फिर
शब्दों की घाटी में
भटक गया।