Last modified on 5 मई 2010, at 14:15

नंगी पीठ पर / रमेश प्रजापति

सम्यक (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:15, 5 मई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश प्रजापति }} {{KKCatKavita}} <poem> पहाड़ की नंगी पीठ पर बि…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

पहाड़ की नंगी पीठ पर
बिखर जाते हैं टकराकर
धरती पर मौसम
तालाब की नंगी पीठ पर
मौज़-मस्ती करते हैं जलपाखी
सड़क की लपलपाती नंगी पीठ पर
मिल जाते हैं बिखरे
प्रतिदिन लहू के ताज़ा धब्बे
नंगी पीठ वाला चरवाहा
बैठकर पहाड़ की चोटी पर
बादलों को भरकर खुरखुरी मुट्ठी में
निचोड़ देता है अँगोछे-सा
अपने निर्जन में
सिर पर चढ़कर
बैठ जाता है तमतमाता सूरज
निकल जाती है रास्ता बदलकर
चुपके से हवा
सिमट जाती है परछाईं
मज़दूर ढोते हुए अपनी नंगी पीठ पर
घर की ज़रूरतों का बोझ
बीड़ी के धुएँ से उड़ देता है थकान
धरती की कोख में
दबाते हुए उम्मीद के बीज
किसान की नंगी पीठ पर
पसीने की बूँदों में मुस्कुराता है सूरज
पीपल की छाँव में बैठे
फड़फड़ाते फेफड़ों में भरते
आॅक्सीजन वाले
मरियल बूढ़े की नंगी पीठ पर
वक्त के कुशल चित्रकार ने
टाँक दिए हैं अनुभवों के रेखाचित्र
चाँद
ढोता है रात को
अपनी नंगी पीठ पर
आज भी हरदम
तैयार रहती है नंगी पीठ
ढोने को
दुनियादारी का कोई भी बोझ।