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घर / नीरज दइया
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तुमने और मैंने पाला
हजार-हजार रंगों का
एक सपना ।
तुम्हारी और मेरी निगाहों का
तुम्हारे और मेरे ख्वाबों का
एक घर हो
जो अब धरती पर
नहीं बनेगा कभी ।
मां कहती है-
बेवकूफी है
घर होते बियाबान में भटकना ।
आग लगा दो-
ऐसे नुगरे सपनों को
जो थका डालते हैं
और करवाते हैं
व्यर्थ यात्रा ।
अनुवाद : मदन गोपाल लढ़ा