ज़मीन यूँ ले रही है अँगड़ाई
जैसे कोई नाज़ुक दोशीजा
इश्क़ के चौराहे पर तन्हा खड़ी हो
और जो मुझे दूर, बहुत दूर दिखाई देती हो
एक क़हक़हे, एक गुलाब
एक सदी की तरह, जहाँ मैं पहुँच नहीं सकता
रचनाकाल : 21 अगस्त 2005, रोम
ज़मीन यूँ ले रही है अँगड़ाई
जैसे कोई नाज़ुक दोशीजा
इश्क़ के चौराहे पर तन्हा खड़ी हो
और जो मुझे दूर, बहुत दूर दिखाई देती हो
एक क़हक़हे, एक गुलाब
एक सदी की तरह, जहाँ मैं पहुँच नहीं सकता
रचनाकाल : 21 अगस्त 2005, रोम