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परतंत्रता की गाँठ / गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'
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बीतीं दासता में पड़े सदियाँ, न मुक्ति मिली
पीर मन की ये मन ही मन पिराती है
देवकी-सी भारत मही है हो रही अधीर
बार-बार वीर ब्रजचन्द को बुलाती है
चालीस करोड़ पुत्र करते हैं पाहि-पाहि
त्राहि-त्राहि-त्राहि ध्वनि गगन गुंजाती है
जाने कौन पाप है पुरातन उदय हुआ
परतन्त्रता की गाँठ खुलने न पाती है