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मेरा गांव कहां गया / ओम पुरोहित ‘कागद’

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यह जो तुम
झुंड के झुंड चल रहे हो
जैसे
किसी युद्ध से जूझ कर लौट रहे हो
ठीक यहीं
हां, यहीं
मेरा गांव था
सचमुच बड़ा प्यारा गांव था ।

गांव में
हरियल छांवदार
अगणित पेड़ थे
पनघट थे
शर्मीली गौरियां थीं
झूम कर बरसता था पानी ।

वो जो दूर ठूंठ खड़े हैं
ठीक वहीं
नीम के पेड़ थे
और भी थे बहुत से पेड़
पेड़ों पर कूकती थी कोयल
उन्ही की छांव में
नाचते थे मोर
उन्ही के नीचे से
निकलता था खेतों को जाता
एक सर्पीला रास्ता
जिस पर सुनाई देती थी
किसानों
ग्वालों
गडरियों की मीठी टिचकारियां ।

अरे !
यही तो है वह रास्ता
जो शहर को जाता था
रास्ता,
जिसे हम पगडंडी कहते थे
पगडंडियों पर होते थे
कुछ आते
कुछ जाते
मानवी पैर
पगडंडियों के किनारे
होते थे हरियल कैर ।

और हां
यही उफनती थी घग्घर
जिस से जूझते हुए
हम जाते थे दूसरे किनारे
जिस को अब आप
करते हैं पार
मोटर के सहारे ।

वो
जो अब
गत्ता फैक्ट्री है
वहीं तो था
एक हराभरा
भरापूरा जंगल
जहां
बांवळी
फोग
शीशम
कीकर
खेजड़ा,जाल
रोहिड़ा और कूमटा
करते थे मंगल।

यह जो तुम्हारा पार्क है
जहां लौटते हैं कुत्ते
ठीक यहीं थी चौपाल
जिस पर
हर शाम
खेत से थके-हारे लौट
बाबा
रामू काका
फत्तू
अल्लादिता ताऊ
और बाहर से आए बताऊ

हताई करते थे ।

जरा ठहरो !
मुझे बताओ
वो मेरा गांव
कहां गया
कौन लील गया उसे
कौन छोड़ गया
कथित तरक्की पसंद धुआं ?
अब
क्यों नहीं
मंडते
पगडंडियों पर मानवी पदचिन्ह ?

तुम जाओ भले ही
इक्कीसवीं सदी में
मुझे मेरा वही गांव लौटा दो
या फिर बता दो
उस का नाम
जो मेरे गांव को लील गया ।