भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कायान्‍तरण / निकलाई ज़बालोत्‍स्‍की

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:15, 10 सितम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKAnooditRachna |रचनाकार=अनातोली परपरा |संग्रह=माँ की मीठी आवाज़ / अना…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: अनातोली परपरा  » संग्रह: माँ की मीठी आवाज़
»  कायान्‍तरण

किस तरह बदलता रहता है संसार,
और किस तरह बदलता रहा हूँ मैं स्‍वयं!
मुझे मात्र एक नाम से जानती है दुनिया
पर वास्‍तव में जिस नाम से जाना जाता है मुझे
वह मैं एक नहीं, एक साथ अनेक हूँ और ज़िंदा हूँ ।

ख़ून जम जाए इससे पहले ही
मैं एक से अधिक बार मरता आया हूँ ।
पता नहीं अपने शरीर से कितने शवों को
मैं अलग कर चुका हूँ ।

यदि दृष्टि प्राप्‍त हो जाती मेरे विवेक को
कब्रों के बीच मेरे विवेक को दिखाई दे जाता मैं
गहराई में लेटा हुआ,
वह मुझ स्‍वयं को दिखाता
समुद्री लहरों के ऊपर झूलता हुआ,
अदृश्‍य देशों की ओर उड़ती मेरी राख दिखाता
राख जो मुझे कभी बहुत प्रिय रही थी ।

मैं आज भी ज़िंदा हूँ
और अधिक पवित्रता, और अधिक पूर्णता से
अपने आलिंगन में ले रही आत्‍मा
अद्भुत जीव-जंतुओं की भीड़ को ।
जी‍वित है प्रकृति, जीवित है पत्‍थरों के बीच
अन्‍न और सूखी पत्तियों के भंडार ।
जोड़ में जोड़, रूप में रूप ।
अपनी संपूर्ण वास्‍तुकला में संसार
जैसे बजता हुआ ऑर्गन, बिगुलों का समुद्र और पियानो
जो न ख़ुशियों में मरता है न तूफ़ानों में ।

 

और जो मैं था वह संभव है पुनः
उग आए, समृद्ध कर दे वनस्‍पति-जगत को ।
उलझे हुए, गुंथे हुए धागे के गोले को
खोलने की जैसी कोशिश्‍ा करते हुए
हमें अचानक दिखाई दे वह
अमर्त्‍यता का नाम दिया जा सकता है जिसे,
ओ, हमारे अंधविश्‍वास!

1937
 

मूल रूसी से अनुवाद- वरयाम सिंह