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अब के ऐसा दौर बना है / गौतम राजरिशी
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अब के ऐसा दौर बना है
हर ग़म काबिले-गौर बना है
उसके कल की पूछ मुझे, जो
आज तिरा सिरमौर बना है
फिर से चांद को रोटी कहकर
आंगन में दो कौर बना है
बंद न कर दिल के दरवाज़े
ये हम सब का ठौर बना है
इस्कूलों में आए जवानी
बचपन का ये तौर बना है
तेरी-मेरी बात छिड़ी तो
फिर किस्सा कुछ और बना है
झगड़ा है कैसा आख़िर, जब
दिल्ली-सा लाहौर बना है
{मासिक वर्तमान साहित्य, अगस्त 2009}