अब के ऐसा दौर बना है
हर ग़म काबिले-गौर बना है
उसके कल की पूछ मुझे, जो
आज तिरा सिरमौर बना है
फिर से चाँद को रोटी कहकर
आँगन में दो कौर बना है
बंद न कर दिल के दरवाज़े
ये हम सब का ठौर बना है
इस्कूलों में आए जवानी
बचपन का ये तौर बना है
तेरी-मेरी बात छिड़ी तो
फिर क़िस्सा कुछ और बना है
झगड़ा है कैसा आख़िर, जब
दिल्ली-सा लाहौर बना है
(मासिक वर्तमान साहित्य, अगस्त 2009)