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सभी तो जीते हैं / केदारनाथ अग्रवाल

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सभी तो जीते हैं
जमीन
जहान
मकान
दुकान
और संविधान की
जिन्दगी,
अपने लिए-
साम्पत्तिक सम्बंधों के लिए-
राजनीतिक
दाँवपेंच की
धोखाधड़ी में।

सभी तो हो गए हैं
शतरंज की बिछी बिसात में
खड़े कर दिए गए मोहरे,
जो,
खुद तो नहीं-
खेलाड़ियों के चलाए चलते हैं
हार-जीत के लिए।
मोहरे पीटते हैं
मोहरों को;
खेलाड़ी नहीं पीटते
खेलाड़ियों को।

मोहरे पिटते हैं
मोहरों से;
खेलाड़ी नहीं पिटते
खेलाड़ियों से।

खेलते-खेलते खेल
लोग
जिंदगी जीते हैं-
मात देते-
मात खाते;
कभी मीठे-
कभी कड़ुवे घूँट पीते।

रचनाकाल: २८-०३-१९७९