भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सभी तो जीते हैं / केदारनाथ अग्रवाल
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:01, 18 अक्टूबर 2010 का अवतरण ("सभी तो जीते हैं / केदारनाथ अग्रवाल" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite)))
सभी तो जीते हैं
जमीन
जहान
मकान
दुकान
और संविधान की
जिन्दगी,
अपने लिए-
साम्पत्तिक सम्बंधों के लिए-
राजनीतिक
दाँवपेंच की
धोखाधड़ी में।
सभी तो हो गए हैं
शतरंज की बिछी बिसात में
खड़े कर दिए गए मोहरे,
जो,
खुद तो नहीं-
खेलाड़ियों के चलाए चलते हैं
हार-जीत के लिए।
मोहरे पीटते हैं
मोहरों को;
खेलाड़ी नहीं पीटते
खेलाड़ियों को।
मोहरे पिटते हैं
मोहरों से;
खेलाड़ी नहीं पिटते
खेलाड़ियों से।
खेलते-खेलते खेल
लोग
जिंदगी जीते हैं-
मात देते-
मात खाते;
कभी मीठे-
कभी कड़ुवे घूँट पीते।
रचनाकाल: २८-०३-१९७९