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गर्म-सर्द हवाएँ / केदारनाथ अग्रवाल

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मर गईं गर्म हवाएँ
धूल धक्कड़ उड़ाकर
घर और घोंसले फूँककर
और अब
सर्द हवाएँ
बर्फ मारकर
जला दिल ठंढ़ा कर रही हैं

रचनाकाल: २५-१२-१९७०