भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गर्म-सर्द हवाएँ / केदारनाथ अग्रवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मर गईं गर्म हवाएँ
धूल धक्कड़ उड़ाकर
घर और घोंसले फूँककर
और अब
सर्द हवाएँ
बर्फ मारकर
जला दिल ठंढ़ा कर रही हैं

रचनाकाल: २५-१२-१९७०