Last modified on 28 नवम्बर 2010, at 23:41

फिर बेले में कलियाँ आईं/ सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:41, 28 नवम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" |संग्रह=सांध्य काक…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

फिर बेले में कलियाँ आईं ।
डालों की अलियाँ मुसकाईं ।

        सींचे बिना रहे जो जीते,
       स्फीत हुए सहसा रस पीते;
       नस-नस दौड़ गई हैं ख़ुशियाँ
        नैहर की ललियाँ लहराईं ।

सावन, कजली, बारहमासे
उड़-उड़ कर पूर्वा में भासे;
प्राणों के पलटे हैं पासे,
पात-पात में साँसें छाईं ।

        आमों की सुगन्ध से खिंच कर
       वैदेशिक जन आए हैं घर,
       बन्दनवार बँधे हैं सुन्दर,
       सरिताएँ उमड़ीं, उतराईं ।