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फिर बेले में कलियाँ आईं/ सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

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फिर बेले में कलियाँ आईं ।
डालों की अलियाँ मुसकाईं ।

        सींचे बिना रहे जो जीते,
       स्फीत हुए सहसा रस पीते;
       नस-नस दौड़ गई हैं ख़ुशियाँ
        नैहर की ललियाँ लहराईं ।

सावन, कजली, बारहमासे
उड़-उड़ कर पूर्वा में भासे;
प्राणों के पलटे हैं पासे,
पात-पात में साँसें छाईं ।

       आमों की सुगन्ध से खिंच कर
       वैदेशिक जन आए हैं घर,
       बन्दनवार बँधे हैं सुन्दर,
       सरिताएँ उमड़ीं, उतराईं ।